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Saturday, 23 February 2013

मेरी बात


" मेरी बात "

क्या कभी तुम्हेँ होगा यह ज्ञात,
जो है मेरे दिल कि बात । 
क्या कभी तुम्हेँ होगा यह ज्ञात, कि मैं,
क्यों तुम्हारे साथ रहना चाहता ?
क्यों तुम्हेँ सुनना चाहता ?
क्यों तुम्हेँ कुछ बताना चाहता-
मेरे दिल की बात ।
क्या कभी तुम्हेँ होगा यह ज्ञात-
कैसी कटती है मेरी प्रत्येक रात-
जब मैं तुम्हेँ सोचता
तुम्हारे साथ जो पल बिताता
   उन्हें मैं अपने हृद्य कोष मे सन्जोता ।  
क्या कभी तुम्हेँ होगा यह ज्ञात  
कि भीतर ही
क्यों अटक जाती है वो बात,
जिसे कहने का मन बनाता
साहस भी जुटाता
लेकिन जब तुम्हारे सामने होता
मेरा शब्द-कोष ही रिक्त हो जाता ।
  क्या कभी वह दिन भी आएगा,
जब मन रुकना चाहेगा
लेकिन रुक न पायेगा
जब मन बदरा बन
बरस जायेगा
जब कंठ का वेग
झरने समान निरंतर बहेगा
उस दिन के इन्तजार में
यह कविता तुम्हे
समर्पित

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