आश्चर्य करता
हूँ,
पल भर
में नज़ारा
दुनिया का
देखकर
इन्टरनेट के
ज़रिये.
बनते हैं
जहाँ सेकड़ों
रिश्ते
बस एक
क्लिक पर.
आश्चर्य करता
हूँ,
यह सोचकर,
8X10 के कमरे में
बैठ
कर
तन्हा होते
हुए भी
मैं अपने
आप को
अकेला नहीं . पाता
अरे यकीं
कीजिये
पूरा एक
गाँव बसाया
है मैंने
अपने सेकड़ों
परिजनों
का...
लेकिन
फिर भी
यह कैसा
खालीपन.
इतना सब
होते हुए
भी
नहीं है
अपनापन.
सदियाँ हो
गयी
किसी अपने
का हाथ
थामे
किसी बड़े
का चरणस्पर्श
किये
किसी दोस्त
के गले
में हाथ
डाले घुमे
उन गलियों
में खेले.
जो सकरी
रहते हुए
भी
भरपूर आत्मीयता को
संजोये हुए
थी
सचमुच सदियाँ
हो गयीं
सौंधी मिटटी
को महसूस
किये.
फूलों को
देख कर
उन्ही के
जैसे मुस्कुराये.
आज याद आता
है
वो
नुक्कड़
जहाँ
मिलता था
चाय-चिंतन का
अद्भुत संगम.
उंगलियाँ
क्लिक करते
करते मोटी
हो गई
लेकिन भावनाएं
कहीं गुम
हो गई.
हज़ारों मीलों
कि दूरियां
मिनटों में
तो लांघ
ली
लेकिन
कमरे के
बहार की
कुछ फुट
की दूरियां
आज थका
देती हैं.
कैसी शून्यता
है.
जो अखंडित
सी
लगती है.
लगता है
इस अती
की कोई
सीमा नहीं
है.
अज़ीब इन्टरनेट
की दुनिया,
शायद येही
है...
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