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Thursday, 25 April 2013

हार मानूंगा नहीं

हार मानूंगा नहीं

एक टूटी कश्ती लेकर अकेला 
मझधार में ही सही
कातिल लहरों से लड़ जाऊँगा 
लेकिन घुटने अपने टेकुगा नहीं
अकेला घनघोर अँधेरे में
खड़ा हुआ ही सही 
लेकिन अपनी मशाल
बुझने दूंगा नहीं 
बादलों की गर्जन
कितनी ही तीव्र सही
आंधी कितनी ही तेज़ सही
लेकिन अपनी जड़े
हिलने दूंगा नहीं
जब तक 
ध्येय की प्राप्ति न हो जाये
पेड़ कितना ही छतनार सही
लेकिन थक कर चूर हो कर
आराम करूंगा नहीं.
नर हूँ
निराश मन को करूंगा नहीं
सत्य की रक्षा में
अधम के विनाश में
कर्तव्यों को पूरा करने में
छत-विछत हो जाऊँगा भले ही 
अपने बल पर उठ जाऊँगा
लेकिन पीठ दिखाकर 
भागूंगा नहीं
एक शूरवीर की तरह
वीरगति को प्राप्त 
हो जाऊँगा भले ही
लेकिन 
कायरों की तरह 
हज़ार मौतें मारूंगा नहीं
गिर कर हो जायें मेरे 
हज़ारों टुकड़े भले ही
लेकिन 
प्रत्येक टुकड़ा 
पुनः उठ कर कहेगा 
हार मानूंगा नहीं



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