हार मानूंगा नहीं
एक टूटी कश्ती लेकर अकेला
मझधार में ही सही
कातिल लहरों से लड़ जाऊँगा
लेकिन घुटने अपने टेकुगा नहीं
अकेला घनघोर अँधेरे में
खड़ा हुआ ही सही
लेकिन अपनी मशाल
बुझने दूंगा नहीं
बादलों की गर्जन
कितनी ही तीव्र सही
आंधी कितनी ही तेज़ सही
लेकिन अपनी जड़े
हिलने दूंगा नहीं
जब तक
ध्येय की प्राप्ति न हो जाये
पेड़ कितना ही छतनार सही
लेकिन थक कर चूर हो कर
आराम करूंगा नहीं.
नर हूँ
निराश मन को करूंगा नहीं
नर हूँ
निराश मन को करूंगा नहीं
सत्य की रक्षा में
अधम के विनाश में
कर्तव्यों को पूरा करने में
छत-विछत हो जाऊँगा भले ही
अपने बल पर उठ जाऊँगा
लेकिन पीठ दिखाकर
भागूंगा नहीं
एक शूरवीर की तरह
वीरगति को प्राप्त
हो जाऊँगा भले ही
लेकिन
कायरों की तरह
हज़ार मौतें मारूंगा नहीं
गिर कर हो जायें मेरे
हज़ारों टुकड़े भले ही
लेकिन
प्रत्येक टुकड़ा
पुनः उठ कर कहेगा
हार मानूंगा नहीं
No comments:
Post a Comment