अर्ध से आरंभ
जब मैं था तुम्हारे संग
मन में थी एक अजीब सी उमंग
सोचा था
रहोगे तुम मेरे मन में
जेसे वल्लरी लिपटी रहती है
एक छतनार पेड़ के संग ।
बुने थे कुछ मैंने
बुने होंगे तुमने
कुछ स्वप्न ।
लगा था
होगें हम संग
आजीवन ।
माना कुछ अभाव थे
कुछ दूरियां भी थी
लेकिन
क्या मिला तुम्हे
और
क्या हासिल कर पाया
मैं??
क्या पता था
शब्दों की तकरार में
नियति अपने द्युत में
चले जा रही थी पासे
हमारे
ही
खिलाफ ।
आज
मन के संदूक को टटोल
रहा हूँ
और
देख रहा हूँ
मैं
समय है मानव से
अधिक बलशाली
क्यूंकि
वह प्रतीक्षा
करता नहीं
और रह जाती हैं
उन यादों की
ठूंठ ।
लेकिन
है जीवन
अभी भी शेष
संजोये हुए अपने स्मृति कोष
आशा है
अभी भी कर सकतें
हैं हम
अर्ध से आरंभ ।
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