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Saturday, 4 May 2013

अंकुर



अंकुर

चक्रव्यूह के निकट खड़ा
तू क्या सोच रहा ?
जब धर्म टक-टकी लगाये तुझे देख रहा,
फिर क्यों तेरा शरीर थर्थर कांप रहा ?
क्या यह सोचता तू
कि,
ऐसी कायरता दिखाकर बच जायेगा
अपने दायित्व से तू ?
अगर यह सही है-
तो अपने भ्रम को सींचता तू .

जैसे आलस की आड़ में
बंद कर लेता झरोंखे तू
और बंद कर लेता अपनी आँखे तू
लेकिन
पड़ती तेज़ धूप जब पलखों पर
तब तो
मजबूर हो जाग जाता न तू.


इस घडी में
बना हुआ क्यों नपुंसक तू ?
और जाना चाहता रण छोरकर तू,
तो मैं तुझे यह कह दूं कि
जा शौक-से जा तू
नहीं भी देगा साथ मेरा तू
तब भी लडूँगा अकेला मैं
यह समझ ले तू.
मुझे है भरोसा,
मुझे लड़ता देख
खुद को भी न रोक पायेगा तू
मुझे है भरोसा
धरती के गर्भ में
सच का बीज
कितना ही नीचे गडा हुआ
क्यों न हो,
धरती को चीर के
दृढ खड़ा हो जायेगा
अंकुर.

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