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Saturday 11 May 2013

माँ


भाग्यविधाता के सामने खड़ा हुआ मैं
अपनी बारी आने के इंतज़ार में
 सोच रहा
अगले जन्म के लिए
क्या वरदान की मांग करूं मैं?
क्या मांग लूं मैं
चिरंजीव होने का
वरदान मैं ?
या मांग लूं
अजातशत्रु होने का
वरदान मैं ?
क्या मांग लूं
सम्पूर्ण पृथ्वी का राज्य मैं?
या मांग लूं मैं
कुबेर से ज्यादा धन?

क्या फिर भी भर पायेगा मेरा मन ?
आई जब मेरी बारी
माँगा मैंने
एक आँचल
एक प्रेम का बंधन
एक गुरु मार्गदर्शक

विधातापुरुष ने दिया वरदान
पहली दफ़ा जब खोलेगा तू आँखे
देखेगा जिसका तू चेहरा
जिसको पुकारेगा तू पहली बार
वोह होगा तेरा वरदान...
पलखें खोली जब मैंने
देखा एक सोम्य चेहरा पहली बार
सहसा एक आंसू बह आया
और रूंधे हुए कंठ से
निकला
“माँ” 

Saturday 4 May 2013

अंकुर



अंकुर

चक्रव्यूह के निकट खड़ा
तू क्या सोच रहा ?
जब धर्म टक-टकी लगाये तुझे देख रहा,
फिर क्यों तेरा शरीर थर्थर कांप रहा ?
क्या यह सोचता तू
कि,
ऐसी कायरता दिखाकर बच जायेगा
अपने दायित्व से तू ?
अगर यह सही है-
तो अपने भ्रम को सींचता तू .

जैसे आलस की आड़ में
बंद कर लेता झरोंखे तू
और बंद कर लेता अपनी आँखे तू
लेकिन
पड़ती तेज़ धूप जब पलखों पर
तब तो
मजबूर हो जाग जाता न तू.


इस घडी में
बना हुआ क्यों नपुंसक तू ?
और जाना चाहता रण छोरकर तू,
तो मैं तुझे यह कह दूं कि
जा शौक-से जा तू
नहीं भी देगा साथ मेरा तू
तब भी लडूँगा अकेला मैं
यह समझ ले तू.
मुझे है भरोसा,
मुझे लड़ता देख
खुद को भी न रोक पायेगा तू
मुझे है भरोसा
धरती के गर्भ में
सच का बीज
कितना ही नीचे गडा हुआ
क्यों न हो,
धरती को चीर के
दृढ खड़ा हो जायेगा
अंकुर.

Monday 29 April 2013

आईना और मैं

आईना और मैं

आईना भी चकित,
देखता रह गया 
की जिसकी 
आखों मैं थे 
कल रात आंसू
आज फिर
मुस्कुरा रहा
आईना भी चकित,
देखता रह गया 
की जिसके 
चेहरे पर थे 
विषाद के बादल
आज उस चेहरे पर
खिली धूप
जेसे फिर
 झूम आया बसंत
आईना भी चकित,
देखता रह गया
कि जो कलतक था
अपनों के दिए 
दर्द से कराहता हुआ
आज फिर उमंग से 
भर उठा
एसा क्या हुआ 
एक रात में
जिससे 
आईना भी  चकित 
देखता रह गया
धोखा खा बैठा और 
बोल बैठा 
यह वह नहीं है चेहरा 
जिसे मैंने कल रात देखा 


Thursday 25 April 2013

हार मानूंगा नहीं

हार मानूंगा नहीं

एक टूटी कश्ती लेकर अकेला 
मझधार में ही सही
कातिल लहरों से लड़ जाऊँगा 
लेकिन घुटने अपने टेकुगा नहीं
अकेला घनघोर अँधेरे में
खड़ा हुआ ही सही 
लेकिन अपनी मशाल
बुझने दूंगा नहीं 
बादलों की गर्जन
कितनी ही तीव्र सही
आंधी कितनी ही तेज़ सही
लेकिन अपनी जड़े
हिलने दूंगा नहीं
जब तक 
ध्येय की प्राप्ति न हो जाये
पेड़ कितना ही छतनार सही
लेकिन थक कर चूर हो कर
आराम करूंगा नहीं.
नर हूँ
निराश मन को करूंगा नहीं
सत्य की रक्षा में
अधम के विनाश में
कर्तव्यों को पूरा करने में
छत-विछत हो जाऊँगा भले ही 
अपने बल पर उठ जाऊँगा
लेकिन पीठ दिखाकर 
भागूंगा नहीं
एक शूरवीर की तरह
वीरगति को प्राप्त 
हो जाऊँगा भले ही
लेकिन 
कायरों की तरह 
हज़ार मौतें मारूंगा नहीं
गिर कर हो जायें मेरे 
हज़ारों टुकड़े भले ही
लेकिन 
प्रत्येक टुकड़ा 
पुनः उठ कर कहेगा 
हार मानूंगा नहीं



Tuesday 2 April 2013

अर्ध से आरंभ

अर्ध से आरंभ

जब मैं था तुम्हारे संग
मन में थी एक अजीब सी उमंग
सोचा था
रहोगे तुम मेरे मन में
जेसे वल्लरी लिपटी रहती है
एक छतनार पेड़ के संग ।
बुने थे कुछ मैंने
बुने होंगे तुमने
कुछ स्वप्न ।
लगा था
होगें हम संग
आजीवन ।
माना कुछ अभाव थे
कुछ  दूरियां भी  थी
लेकिन
क्या मिला तुम्हे
और
क्या हासिल कर पाया
मैं??
क्या पता था
शब्दों की तकरार में 
नियति अपने द्युत में
चले जा रही थी पासे
हमारे
ही
खिलाफ ।
आज
मन के संदूक को टटोल
रहा हूँ
और
देख रहा हूँ
मैं
समय है मानव से
अधिक बलशाली
क्यूंकि
वह प्रतीक्षा
करता नहीं
और रह जाती हैं
उन यादों की
ठूंठ ।
लेकिन
है जीवन
अभी भी शेष
संजोये हुए अपने स्मृति कोष
आशा है
अभी भी कर सकतें
हैं हम
अर्ध से आरंभ ।

Thursday 14 March 2013

नया सवेरा


नया  सवेरा

एक बार पूछा मैंने
अपने सिरजनहार से 
"बताएं प्रभु मुझे ऐसा मार्ग
जिस पर चल कर मैं बन जाऊं
दिनकर करूं नया  सवेरा, 
क्यूंकि अब घनघोर हो गया है 
यह अँधेरा
जिसने बना लिया है 
चक्रव्यूह का घेरा
तमस का बन गया है 
हृदय मैं मेरे रेन-बासेरा "

मिला उत्तर मुझे 
" हे मानव!
 क्यूँ करते हो व्यर्थ चिंतन
यह रात का अँधेरा
हो भले ही घनघोर
लेकिन सुबह है अगले छोर
काल का भय कैसा 
जब हूँ मैं तुम्हारे साथ हमेशा
बस मेरी ज्योति को रखना 
प्रजुवलित अपने हिय में हमेशा
ऐसा करने से 
बन जाओगे तुम
दिनकर 
और
 हो जायेगा 
      नया सवेरा !!!"



Sunday 24 February 2013

कृष्ण अर्जुन संवाद

अर्जुन की दुविधा


हरि पथ प्रदर्शक बनें
इस अंधकार में मेरी ज्योति बनें
क्या पूर्ण होगी मेरी कामना
इस जीवन काल में ?
चाहता हूँ मैं
कि युध्भूमि सजे
जिसमे
ले सकूं मैं
प्रतिशोध
मैं
उस कापुरुष दुर्योधन से
उस निर्लज्ज दुशाशन से
उस कपटी जुआरी शकुनी से
और
उस मूक राजसभा से
जो दे रही थी खुली छूट
अपने मौन से ।
बताइए केशव
क्या देख पाउँगा इनके शव
गिद्धों के भोज में ?
क्या ऐसा होगा ,
कि आने वाली पीढियां
ला खड़ा करेंगी मुझे
कायारों की कतार में ??
बताइए केशव...

कृष्ण उवाच

हे पार्थ !
माना हुआ है यह अन्याय-अनर्थ,
लेकिन नहीं जायेगा यह क्रोध तुम्हारा व्यर्थ,
होता है इन सब घटनाओं का कुछ न कुछ अर्थ,
निराश होकर करो न समय व्यर्थ ।
हे धनञ्जय !
न सोचो जय – पराजय ।
यह समय,
नहीं है प्रतिशोध का
वरन, 
अपने आप को तैयार करने का
दिव्यास्त्र की खोज का
जो है शोभा
देवेन्द्र के तूणीर का
करो तपस्या
क्योंकि,
अभी येही है तुम्हारा
विशुद्ध कर्तव्य ।
तुम
करो न चिंता शेष की
क्यूंकि धरती भी प्यासी
है उन दुराचारियों के लहू की ।
जबतक तुम होगे नहीं
रहेगा बालक अभिमन्यु मेरे पास ही
लड़ेगा युद्ध में वह तुम्हारे साथ
तुम्हारे कंधे के पास ही
और करो दृढ होकर 
तैयारी आने वाले 
समय
 की
 ॥


Saturday 23 February 2013

मेरी बात


" मेरी बात "

क्या कभी तुम्हेँ होगा यह ज्ञात,
जो है मेरे दिल कि बात । 
क्या कभी तुम्हेँ होगा यह ज्ञात, कि मैं,
क्यों तुम्हारे साथ रहना चाहता ?
क्यों तुम्हेँ सुनना चाहता ?
क्यों तुम्हेँ कुछ बताना चाहता-
मेरे दिल की बात ।
क्या कभी तुम्हेँ होगा यह ज्ञात-
कैसी कटती है मेरी प्रत्येक रात-
जब मैं तुम्हेँ सोचता
तुम्हारे साथ जो पल बिताता
   उन्हें मैं अपने हृद्य कोष मे सन्जोता ।  
क्या कभी तुम्हेँ होगा यह ज्ञात  
कि भीतर ही
क्यों अटक जाती है वो बात,
जिसे कहने का मन बनाता
साहस भी जुटाता
लेकिन जब तुम्हारे सामने होता
मेरा शब्द-कोष ही रिक्त हो जाता ।
  क्या कभी वह दिन भी आएगा,
जब मन रुकना चाहेगा
लेकिन रुक न पायेगा
जब मन बदरा बन
बरस जायेगा
जब कंठ का वेग
झरने समान निरंतर बहेगा
उस दिन के इन्तजार में
यह कविता तुम्हे
समर्पित