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Monday 29 April 2013

आईना और मैं

आईना और मैं

आईना भी चकित,
देखता रह गया 
की जिसकी 
आखों मैं थे 
कल रात आंसू
आज फिर
मुस्कुरा रहा
आईना भी चकित,
देखता रह गया 
की जिसके 
चेहरे पर थे 
विषाद के बादल
आज उस चेहरे पर
खिली धूप
जेसे फिर
 झूम आया बसंत
आईना भी चकित,
देखता रह गया
कि जो कलतक था
अपनों के दिए 
दर्द से कराहता हुआ
आज फिर उमंग से 
भर उठा
एसा क्या हुआ 
एक रात में
जिससे 
आईना भी  चकित 
देखता रह गया
धोखा खा बैठा और 
बोल बैठा 
यह वह नहीं है चेहरा 
जिसे मैंने कल रात देखा 


Thursday 25 April 2013

हार मानूंगा नहीं

हार मानूंगा नहीं

एक टूटी कश्ती लेकर अकेला 
मझधार में ही सही
कातिल लहरों से लड़ जाऊँगा 
लेकिन घुटने अपने टेकुगा नहीं
अकेला घनघोर अँधेरे में
खड़ा हुआ ही सही 
लेकिन अपनी मशाल
बुझने दूंगा नहीं 
बादलों की गर्जन
कितनी ही तीव्र सही
आंधी कितनी ही तेज़ सही
लेकिन अपनी जड़े
हिलने दूंगा नहीं
जब तक 
ध्येय की प्राप्ति न हो जाये
पेड़ कितना ही छतनार सही
लेकिन थक कर चूर हो कर
आराम करूंगा नहीं.
नर हूँ
निराश मन को करूंगा नहीं
सत्य की रक्षा में
अधम के विनाश में
कर्तव्यों को पूरा करने में
छत-विछत हो जाऊँगा भले ही 
अपने बल पर उठ जाऊँगा
लेकिन पीठ दिखाकर 
भागूंगा नहीं
एक शूरवीर की तरह
वीरगति को प्राप्त 
हो जाऊँगा भले ही
लेकिन 
कायरों की तरह 
हज़ार मौतें मारूंगा नहीं
गिर कर हो जायें मेरे 
हज़ारों टुकड़े भले ही
लेकिन 
प्रत्येक टुकड़ा 
पुनः उठ कर कहेगा 
हार मानूंगा नहीं



Tuesday 2 April 2013

अर्ध से आरंभ

अर्ध से आरंभ

जब मैं था तुम्हारे संग
मन में थी एक अजीब सी उमंग
सोचा था
रहोगे तुम मेरे मन में
जेसे वल्लरी लिपटी रहती है
एक छतनार पेड़ के संग ।
बुने थे कुछ मैंने
बुने होंगे तुमने
कुछ स्वप्न ।
लगा था
होगें हम संग
आजीवन ।
माना कुछ अभाव थे
कुछ  दूरियां भी  थी
लेकिन
क्या मिला तुम्हे
और
क्या हासिल कर पाया
मैं??
क्या पता था
शब्दों की तकरार में 
नियति अपने द्युत में
चले जा रही थी पासे
हमारे
ही
खिलाफ ।
आज
मन के संदूक को टटोल
रहा हूँ
और
देख रहा हूँ
मैं
समय है मानव से
अधिक बलशाली
क्यूंकि
वह प्रतीक्षा
करता नहीं
और रह जाती हैं
उन यादों की
ठूंठ ।
लेकिन
है जीवन
अभी भी शेष
संजोये हुए अपने स्मृति कोष
आशा है
अभी भी कर सकतें
हैं हम
अर्ध से आरंभ ।