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Friday 12 December 2014

आकृति


जब मैंने देखा तुम्हे
विचोरों का पुनिन्दा उड़ा
लगा जैसे
तुम्हारे रूप में
समा गई है सम्पूर्ण सृष्टि
कुछ पलों के लिए लगा जैसे
मिल गई मुझे दिव्य-दृष्टि
और ऊर्जा से भर गई मेरी प्रकृति
चाहा मैंने कि
उकेर लूं मैं तुम्हारी आकृति
कागज़ के पन्नों पर
जो है कर रही भ्रमण
मेरे मन के आंगन में
कुछ पल के लिए
तोड़ दिया मैंने कटु यथार्त से
अपना रिश्ता
जिससे साफ़ हो गया
 मेरे और कृति के बीच का रास्ता
जैसे-जैसे लकीरें उकेरता गया
बैचेन मन और विचलित होता गया
पशोपेश जद्दोजहद के बाद
पूर्ण हुई अमर अमूर्त कृति
लगा जैसे जब तक रहेगी सृष्टि
अमर रहेगी तुम्हारी आकृति ।