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Sunday 24 February 2013

कृष्ण अर्जुन संवाद

अर्जुन की दुविधा


हरि पथ प्रदर्शक बनें
इस अंधकार में मेरी ज्योति बनें
क्या पूर्ण होगी मेरी कामना
इस जीवन काल में ?
चाहता हूँ मैं
कि युध्भूमि सजे
जिसमे
ले सकूं मैं
प्रतिशोध
मैं
उस कापुरुष दुर्योधन से
उस निर्लज्ज दुशाशन से
उस कपटी जुआरी शकुनी से
और
उस मूक राजसभा से
जो दे रही थी खुली छूट
अपने मौन से ।
बताइए केशव
क्या देख पाउँगा इनके शव
गिद्धों के भोज में ?
क्या ऐसा होगा ,
कि आने वाली पीढियां
ला खड़ा करेंगी मुझे
कायारों की कतार में ??
बताइए केशव...

कृष्ण उवाच

हे पार्थ !
माना हुआ है यह अन्याय-अनर्थ,
लेकिन नहीं जायेगा यह क्रोध तुम्हारा व्यर्थ,
होता है इन सब घटनाओं का कुछ न कुछ अर्थ,
निराश होकर करो न समय व्यर्थ ।
हे धनञ्जय !
न सोचो जय – पराजय ।
यह समय,
नहीं है प्रतिशोध का
वरन, 
अपने आप को तैयार करने का
दिव्यास्त्र की खोज का
जो है शोभा
देवेन्द्र के तूणीर का
करो तपस्या
क्योंकि,
अभी येही है तुम्हारा
विशुद्ध कर्तव्य ।
तुम
करो न चिंता शेष की
क्यूंकि धरती भी प्यासी
है उन दुराचारियों के लहू की ।
जबतक तुम होगे नहीं
रहेगा बालक अभिमन्यु मेरे पास ही
लड़ेगा युद्ध में वह तुम्हारे साथ
तुम्हारे कंधे के पास ही
और करो दृढ होकर 
तैयारी आने वाले 
समय
 की
 ॥


Saturday 23 February 2013

मेरी बात


" मेरी बात "

क्या कभी तुम्हेँ होगा यह ज्ञात,
जो है मेरे दिल कि बात । 
क्या कभी तुम्हेँ होगा यह ज्ञात, कि मैं,
क्यों तुम्हारे साथ रहना चाहता ?
क्यों तुम्हेँ सुनना चाहता ?
क्यों तुम्हेँ कुछ बताना चाहता-
मेरे दिल की बात ।
क्या कभी तुम्हेँ होगा यह ज्ञात-
कैसी कटती है मेरी प्रत्येक रात-
जब मैं तुम्हेँ सोचता
तुम्हारे साथ जो पल बिताता
   उन्हें मैं अपने हृद्य कोष मे सन्जोता ।  
क्या कभी तुम्हेँ होगा यह ज्ञात  
कि भीतर ही
क्यों अटक जाती है वो बात,
जिसे कहने का मन बनाता
साहस भी जुटाता
लेकिन जब तुम्हारे सामने होता
मेरा शब्द-कोष ही रिक्त हो जाता ।
  क्या कभी वह दिन भी आएगा,
जब मन रुकना चाहेगा
लेकिन रुक न पायेगा
जब मन बदरा बन
बरस जायेगा
जब कंठ का वेग
झरने समान निरंतर बहेगा
उस दिन के इन्तजार में
यह कविता तुम्हे
समर्पित